उत्तर प्रदेश | देवरिया जनपद के भाटपार रानी तहसील क्षेत्र के श्रीकृष्ण इण्टर कॉलेज हाता के प्रबंधक रामायण सिंह कुशवाहा अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने 11 दिसम्बर 2025 को अपने गांव लक्ष्मण चक स्थित आवास पर अंतिम सांस ली।
असलम परवेज़ / मकसूद अहमद भोपतपुरी | देवरिया
वे शिक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा,समर्पण के अलावा अपनी आदगी व व्यवहारकुशला के लिए सदैव याद किए जाएंगें। उन्होंने वर्ष 1966 में उस समय श्रीकृष्ण इण्टर कॉलेज के स्थान पर एक जूनियर हाईस्कूल की नींव डाली थी, जब कि किसी गांव में गिने- चुने लोग ही पढ़े-लिखे हुआ करते थे।उस दौर में सिर्फ कुछ बड़े घरानों के लड़के-लड़कियां ही शिक्षा ग्रहण करने के लिए स्कूल जाया करते थे।ऐसे में ग्रामीणों की सहयोग से रामायण कुशवाहा द्वारा स्थापित वह विद्यालय गरीब व कमजोर लोगों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में एक वरदान साबित हुआ।धीरे- धीरे वह स्कूल इण्टर कॉलेज के रूप में विकसित हुआ।
वर्ष 1972 में वह विद्यालय हाईस्कूल तक अनुदान सूची में शामिल हो गया और दर्जनों लोगों को स्थाई नौकरी मिल गई।स्व० रामायण सिंह कुशवाहा उस विद्यालय का संस्थापक होने के साथ- साथ विद्यालय के स्थापना काल से लेकर अंतिम सांस तक प्रबन्धक रहे।उन्होंने कॉलेज का प्रबन्धक होने की जिम्मेदारी पूर्ण निष्ठा के साथ निभाई।
प्रबन्धक का अर्थ ही होता है-प्रबन्ध करने वाला।ऐसे में स्व० कुशवाहा ने विद्यालय के शैक्षणिक, आर्थिक व समाजिक प्रबन्धन का बख़ूबी निर्वहन किया। वे बिहार प्रान्त के सिवान जिले के नौतन प्रखण्ड के जगदीशपुर स्थित हाईस्कूल में वेतन भोगी शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे और वर्ष 1998 में अवकाश ग्रहण किया।क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि वे अपने नियुक्ति वाले विद्यालय में पढ़ाने के बाद अपने स्थापित विद्यालय में अतिरिक्त समय देते थे। वे विद्यालय में आने वाले छात्रों की पढ़ाई और अनुशासन के प्रति सजग रहते थे।कॉलेज के पूर्व प्रधानाचार्य रमाकांत सिंह बताते हैं कि किसी शिक्षक के अनुपस्थित रहने की स्थिति में जब क्लास खाली रहता था तो मैनेजर साहब खुद ही जाकर पढ़ाने लगते थे।
वे अक्सर विभिन्न कक्षाओं में छात्र-छात्राओं की कापियाँ चेक कर व उनसे सवाल पूछकर सम्बन्धित विषयों के शिक्षकों द्वारा पढ़ाने के तौर -तरीकों का जायजा लिया करते थे।इससे शिक्षक भी अपने अध्यापन कार्य के प्रति सजग रहते थे।विद्यालय को अपने घर जैसा सहेजने वाले ऐसा प्रबन्धक मिलना बड़ा ही मुश्किल है।कॉलेज के उप प्रधानाचार्य प्रवीण कुमार गौतम का कहना है कि मैनेजर साहब छात्र-छात्राओं व अध्यापकों के प्रत्येक गतिविधियों पर पैनी नजर रखते थे।
उन्हें देखते ही शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों चौकन्ने हो जाते थे।उनके निधन से विद्यालय ने अपना एक सच्चा अभिभाभक खो दिया है।चूंकि विद्यालय मुख्य सड़क पर स्थित होने के कारण प्रतापपुर या मैरवा जाते समय या उस रास्ते से होकर कहीं अन्यत्र गुजरते समय तकरीबन डेढ़ दशक से मेरा भी उस विद्यालय में आना-जाना लगा रहता था।विद्यालय में जाने के दौरान मैंने कभी भी प्रबन्धक जी को बैठे हुए नहीं देखा।अकस्मात विद्यालय पहुंचने पर हमेशा उन्हें किसी कक्षा में पढ़ाते हुए या पढाकर कक्षा से निकलते हुए ही देखा। एक पत्रकार के तौर पर मैंने जब भी पड़ताल किया तो पाया कि वहां के छात्र-छात्राएं अपने प्रधानाचार्य व शिक्षकों से जितना नहीं डरते थे, उतना प्रबन्धक रामायण कुशवाहा जी से डरते थे।
तकरीबन छह-सात वर्ष पहले एक दिन मैं विद्यालय संचलन के दरम्यान पहुंचा तो देखा कि प्रबन्धक जी किसी कक्षा से पढ़ाकर बाहर निकल रहे थे। जब उन्होंने मुझे देखा तो कहा कि मकसूद बाबू ! यूँ ही मेरे विद्यालय में कभी-कभार आते रहिए।चलिए आपको चाय पिलाते हैं। उसी समय गेट से बाहर निकलकर विद्यालय के फील्ड में टहलते हुए हम लोग कुछ बातें करने लगे।उस समय विद्यालय के प्रांगण में विद्यालय के ही निर्माण कार्य के लिए गिट्टियां रखी हुई थीं।उससे तकरीबन पचास मीटर दूरी पर मैंने देखा कि मुझसे बातचीत करने के दौरान ही प्रबन्धक जी नीचे झुककर बिखरी हुई इक्के-दुक्के गिट्टियां उठाकर अपने कुर्ता की पॉकेट में रखने लगे।
मैंने थोड़ा मजाकिया लहजे में पूछा कि मैनेजर साहब! ये कौन सा टोटका और योग है ? उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि बाबू! यह कोई टोटका और योग नहीं है, बल्कि यह कर्मयोग है।उन्होंने मुझसे कहा कि जिस तरह से एक-एक बूंद से तालाब भरता है, ठीक उसी तरह ये एक-एक गिट्टियां एक मकान की निर्माण करती हैं।लेकिन स्कूल के कुछ बच्चे लंच के समय खेल-खेल में ही इन गिट्टियों को उठाकर दूर फेंक देते हैं।इसलिए इसे सहेजना जरूरी है।
उस दौरान उन्होंने मुझे बताया कि मैंने अपने निजी परिश्रम से एक-एक ईंटों को सहेजकर विद्यालय की यह बिल्डिंग खड़ा किया है। उन्होंने यह भी कहा था कि विद्यालय में रूम बनवाने के लिए नेताओं के पीछे-पीछे घूमना मुझको पसन्द नहीं है। वहीं साधारण कुर्ता-धोती में सादगी के साथ रहना उनकी व्यक्तित्व की अति महत्वपूर्ण विशेषता थी।क्षेत्र के तमाम कार्यक्रमों में वे अपनी बेटी ब्लॉक प्रमुख श्रीमती बिंदा कुशवाहा व बेटा दिनेश सिंह मुन्ना के साथ शरीक होते रहते थे।
उस दौरान दर्जनों कार्यक्रमों में उन्होंने मेरी मंच संचालन शैली, काव्य पाठ, शेरो-शायरी व शब्दों की दिल से तारीफ किया। इस वर्ष 28 अक्टूबर 2025 को छठ पूजा के दिन दोपहर के समय मैं उनके लक्ष्मण चक स्थित आवास पर अंतिम बार मिला था।उस दिन भी मैंने देखा कि वे अपनी बिस्तर पर बैठे हुए थे और अपने पुत्र दिनेश सिंह मुन्ना से बार -बार कह रहे थे कि बाबू! हम दवाई खा लेले बानी, बइठल-बइठल मन ऊब जाता, हमके स्कूल में पहुंचा द। कुछ देर वहां पर रहब।अपने शरीर की चिंता किए बगैर ये उनकी जज्बात शिक्षा व शिक्षा के मंदिर के प्रति उनकी गहरी लगाव को समझने के लिए काफी है।उनके अंदर लगातार 59 वर्षों तक किसी कॉलेज का प्रबन्धक होने का कोई गुरुर नहीं था। अतः जब-जब उनकी कॉलेज पर हमारी निगाहें पड़ती रहेंगीं तो उस चमन के बागबाँ रहे रामायण कुशवाहा जी की यादें भी ताजा होती रहेंगी।